नौकरी की इस दौड़ में, ज़िंदगी रह गई पीछे कहीं,
ज़िंदगी जीने का जूनून था, अब तो बस कागज़ों में सिमटी है वहीं।
समय का न मिलना, एक पुरानी कहानी बन गई,
तन्हा रह गए हम, जैसे भीड़ में खोई ज़िंदगी की रवानी।
सब कुछ होकर भी अकेले, ये कैसा है सिलसिला,
पराया जगह काट खाता है, जैसे कोई न मिले कंधा।
याद आती है माँ की, वो मुस्कुराती सूरत प्यारी,
दो पैसे कमाना अब बस, बन गया है ज़िंदगी का सहारा।
पर इस कमाने के चक्कर में, जीना ही भूल गए हैं,
ज़िंदगी का असल मकसद तो, बस इस दौड़ में खो गए हैं।
तन्हा रातें, अकेली सुबहें, दिन भी गुज़रते हैं खाली,
माँ की यादें बस दिल में, जैसे बारिश की पहली बूँदें गाली।
मुस्कुराती सूरत अब तस्वीरों में बसती है,
और नौकरी की इस बंदिश में, ज़िंदगी कहीं मरती है।
लेकिन फिर भी दिल में एक जूनून सा पलता है,
कि शायद किसी रोज़, समय हमें मिल जाएगा—
वो वक़्त, जब ज़िंदगी को फिर से हम जी पाएंगे,
बिना किसी नौकरी के बंधन के, बस अपने लिए मुस्कुराएंगे।