सिर पर रूखे बालों का, था इक बेजान गुच्छा,
सदियों से बना न दाढ़ी, चेहरा था बिखरा बेतरतीब।
मूछें और दाढ़ी उगीं थीं, जैसे जंगल में बेढ़ब शाख,
कपड़े जैसे धुले न हों, कभी जीवन की राह।
शरीर था सूखी टहनी, कड़क धूप से सना,
बेजान हो गया था, ज्यों जीवन ने उसे छोड़ा।
आँखें उसकी मरी मछली सी, न कोई चमक, न रौशनी,
वक्त ने छीन लिया था सब, बस बची थी एक कहानी।
जीवन की कठिन राहों ने, उसे यूँ ही बना दिया,
पर उसकी आँखों में शायद, कोई सपना छिपा था।
कोई उम्मीद, कोई आरज़ू, जो धुंधली सी दिखती,
उस बेजान तस्वीर में, शायद कोई जिंदा रूह बसती।