अब कितना सहेंगे, हम ये सवाल उठाते हैं,
वोट देकर जिसे जिताया, वो हमसे मुँह छिपाते हैं।
हमारे सपनों की छाया में, उसने जो वादे किए थे,
पांच साल तक उसका चेहरा, बस तस्वीरों में दिखे थे।
जनता की आवाज़, अब कहाँ गुम हो गई,
सत्ता की गलियों में, बस उसकी जयकार हो गई।
हमने सोचा था, वो बदल देगा ये देश,
पर सत्ता के रंग में, खो गया उसका आदेश।
अब क्या करे, जो गलती हमने की,
सत्ता के खेल में, बस जनता ही छली गई।
वादों के माया जाल में, हम फिर से उलझ गए,
जो सोचा था न करेंगे, उसी रास्ते पर फिर चल दिए।
मगर है रे राजनीति का ये खेल,
हर बार वही कहानी, हर बार वही झेल।
नेताओं की जुबान में, अब सच्चाई कहाँ रही,
बस कुर्सी की चाह में, उनकी नीयत बदल गई।
आने वाले चुनाव में, हमने फिर उम्मीद रखी,
सोचा इस बार नहीं, तो शायद अगली बार सही।
पर है रे ये सत्ता का मोह,
वो फिर जीत गया, और हम फिर हार गए।
अब फिर वही पांच साल, वही पुरानी दास्तां,
हाय रे हमारा भाग्य, क्या यही है हमारी अंतर्कथा?
अब जागना होगा, अब समझना होगा,
सिर्फ वोट नहीं, सोच-समझकर चुनाव करना होगा।
क्योंकि सत्ता का ये खेल, बहुत गहरा है,
हमें अपने हक़ की लड़ाई, खुद ही लड़नी होगी।