नौकरी में उलझी ज़िंदगी,
कहाँ जीने का जूनून।
समय का न मिलना, जैसे,
हर पल बन जाए एक सज़ा।
तन्हा दिल, तन्हा सफर,
सब कुछ होकर भी अकेले,
पराया जगह काट खाता,
यादों में बस माँ ही बसी रहती।
मुस्कुराती उसकी सूरत,
दिल को चैन सी देती है,
दो पैसे कमाना ज़रूरी,
पर क्या यह काफ़ी है?
ज़िंदगी की नौकरी में,
खो गया वो बचपन का मस्ताना।
कभी-कभी सोचता हूँ,
क्या बस ये ही है जीना?
जूनून था कुछ करने का,
पर समय ने वो भी छीन लिया।
अब बस यही दुआ है,
माँ की गोद फिर से मिल जाए।
और जीने का जूनून,
फिर से ज़िंदा हो जाए।