बेरोजगारी की आग में जल रहा मन,
महंगाई की लहरों में डूब रहा जन।
रोटी की भीख माँग रहा, आंसू बहा रहा,
सपनों का महल, धीरे-धीरे ढहा रहा।
किसान का दर्द, गहरा हो रहा है,
मेहनत का फल, हाथ से छूट रहा है।
धन-धान्य की बरसात में, वो रो रहा है,
समाज और नेता, आँखें मूंद रहा है।
गरीबी का अंधकार, दिलों को छू रहा,
रोजगार की तलाश में, मन मूझ रहा।
समाजवादी भारत का सपना,
टूट रहा, काम का अधिकार, छीन रहा।